प्राचीन वास्तु (vastu) के अनुसार प्रकृति में तीन प्रकार की ब्रह्मांडीय ऊर्जा (गुण) समाहित रहती है - सत्व, रजस और तमस। हमारे चारों तरफ जो कुछ भी है, वह इन तीनों ऊर्जाओं (energy) की ही अभिव्यक्ति है। प्रत्येक जीव व स्थान में इन तीन ऊर्जाओं की कम या अधिक मात्रा होती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार भी ये तीन ऊर्जाएं ही व्यक्ति की वात, पित्त व कफ की मात्रा को घटाती व बढ़ाती हैं।
मनुष्य को प्रभावित करती है ऊर्जा
चार दिशाएं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण एवं दिशाओं की संधियों में चार कोण (विदिशाएं) - ईशान, आग्नेय, नैऋत्य व वायव्य होते हैं। इन सभी दिशाओं और कोणों पर सत्व, रजस और तमस ऊर्जाओं का प्रभाव अलग-अलग होता है। पृथ्वी का गुण तम, जो वास्तु (vastu) में नैऋत्य में, अग्नि व वायु तत्वों का गुण रजस है, जो आग्नेय तथा वायव्य में, जल का गुण सात्विक है जो ईशान में वास करता है।
ये तीनों गुण एक दूसरे पर निर्भर हैं, जो निरंतर पृथ्वी और मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति इन तीनों प्राकृतिक ऊर्जाओं (energy) की मात्रा पर निर्भर करती है। इन मात्राओं के अनुसार ही वह अलग-अलग ढंग से व्यवहार करता है। जब आप खुश, प्रांजल व बौद्धिक होते हैं, तो इसका अर्थ है सत्व ऊर्जा के प्रभाव में हैं। रजस के सान्निध्य में आप सक्रिय, भावुक और अस्थिर होते हैं। इसी प्रकार तमस ऊर्जा हावी होने पर अकर्मण्य, सुस्त, निरुत्साही और निद्रामग्न होते हैं।
सात्विक सत्व ऊर्जा-
सत्व ऊर्जा ऐसी शक्ति है जो स्थिरता, मूल्यवत्ता और सकारात्मकता से जोड़ती है। पूर्व और उत्तर दिशा के बीच का क्षेत्र सत्व ऊर्जा के प्रभाव में होता है, इसलिए शुभ कार्य करते समय हमारा मुख उत्तर या पूर्व कि तरफ होना चाहिए। ऐसा करने से कार्यों में शीघ्र सफलता प्राप्त होती है। प्लॉट, भवन अथवा कमरे का उत्तर-पूर्व यानि ईशान कोण में सत्व ऊर्जा का प्रभाव शत-प्रतिशत रहता है।
ईशान कोण सात्विक होने के कारण सबसे अधिक पूज्यनीय है। अतः इस क्षेत्र को जितना संभव हो सके साफ़-सुथरा और हल्का-फुल्का रखना चाहिए, क्योंकि यहां से प्रांजल और सकारात्मक ऊर्जाएं भवन के अंदर प्रविष्ट होती हैं। यह स्थान सभी पवित्र कार्यों जैसे पूजा-पाठ, ध्यान, अध्ययन आदि के लिए उपयुक्त हैं।
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